ये मेरा शहर है,
मुझ को यहीं रहना भी है , लेकिन . . .
मुझे इस शहर की दो तीन गलियों को भूलना !
की इन गलियों दे वास्ता हैं,
कुछ मग़मूम सी यादे ,
मगर मुश्किल यही तो है,
की मैं जिसे सिमट भी जाऊ,
वही गलियां मेरे हर रस्ते मं आ निकलती है!
मगर कैसे भूलना है ,
नहीं कुछ सूझता मुझ को ,
किसी से पूछना होगा ,
ये अंदेशा भी है लेकिन ,
के मैं जिस से भी पूछूंगा ,
वो मुझ को न दे पायेगा,
मुनासिब मशवरा कोई,
के इन गलिओं के जादू का ,
किसी को इल्म ही कब हे
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